६५ सालो से ये सिलसिला जारी है, और जब से होश संभाला तब से मै लगातार हर वर्ष देखता हूँ १४ सितम्बर के दिन टीवी, अखबारों में तथाकथित हिंदी प्रेमियों द्वारा हिंदी के लिए रोना रोते हुए। एक दिन के लिए दिल में आह और आँखों में घड़ियाली आंसू लिए बैठ जाते हैं हिंदी पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये। हिंदी दिवस न हो गया शोक दिवस अधिक लगता है। ३६४ दिन अग्रेजी की रट लगाते रहते है और एक दिन हिंदी को श्रद्धांजलि अर्पित हैं। क्या हिंदी सिर्फ एक दिन की भाषा है ? इसको एक दिन के दायरे में कैद कर देना कहा तक उचित है ? हिंदी के लिए एक दिवस घोषित कर देना अपने आप में ही आत्महीनता नही है क्या ? इसे आत्महीनता के अलावा और कुछ नही कहा जा सकता है। हज़ारो सालो की गुलामी ने हमारे स्वाभिमान को इतनी ग्लानि युक्त कर दिया है कि हम स्वयं में अपने आपको और अपनी पृष्टभूमि को इतना सक्षम ही नही समझते हैं कि हम अपने उत्थान के लिए कुछ कर सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो ८० करोड़ लोगो की भाषा अपना स्थान पाने को न तरस रही होती।
अगर हम हिंदी के कुछ करना है तो सबसे पहला कार्य अपने अंदर स्वाभिमान को आने दे। फिर भाषा की संकीर्णता भी इसके प्रचार-प्रसार में बाधक बानी अर्थात जो अन्य भाषाओं के शब्द सहज स्वरुप में आये तो उन्हें अवश्य ही आत्मसात करना चाहिये। समन्यव ही प्रगति का मार्ग है। यदि हम दूसरी भाषाओं के लिए मार्ग बंद कर दे तो भाषा की प्रगति भी रुक जाती है। वो तो भला हो इस बाज़ारवाद का जिसने अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने की लालसा से ही जाने-अनजाने में हिंदी के प्रचार में महती भूमिका निभा रही है। वरना जो दायित्व हिंदी के प्रचार-प्रसार करने वाले मठाधीशो पर थी उन्होंने ही ज्यादा बेड़ागर्क किया। बहरहाल हिंदी पे रोना छोड़े और आशावादी रवैया अपनाये, एक दिन की लानत छोड़े और हरदिन का उत्सव मनाये। हमे हिंदी को साथ लेकर चलने की जरुरत नही बल्कि हमे हिंदी के साथ चलने की जरुरत है। हिंदी अपने आपमें समृद्ध है उसे किसी बैशाखी की जरुरत नही है। बस आवश्यकता है आत्मसात करने की। अन्यथा ये रोना हर वर्ष जारी रहेगा और होगा कुछ नही।
अगर हम हिंदी के कुछ करना है तो सबसे पहला कार्य अपने अंदर स्वाभिमान को आने दे। फिर भाषा की संकीर्णता भी इसके प्रचार-प्रसार में बाधक बानी अर्थात जो अन्य भाषाओं के शब्द सहज स्वरुप में आये तो उन्हें अवश्य ही आत्मसात करना चाहिये। समन्यव ही प्रगति का मार्ग है। यदि हम दूसरी भाषाओं के लिए मार्ग बंद कर दे तो भाषा की प्रगति भी रुक जाती है। वो तो भला हो इस बाज़ारवाद का जिसने अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने की लालसा से ही जाने-अनजाने में हिंदी के प्रचार में महती भूमिका निभा रही है। वरना जो दायित्व हिंदी के प्रचार-प्रसार करने वाले मठाधीशो पर थी उन्होंने ही ज्यादा बेड़ागर्क किया। बहरहाल हिंदी पे रोना छोड़े और आशावादी रवैया अपनाये, एक दिन की लानत छोड़े और हरदिन का उत्सव मनाये। हमे हिंदी को साथ लेकर चलने की जरुरत नही बल्कि हमे हिंदी के साथ चलने की जरुरत है। हिंदी अपने आपमें समृद्ध है उसे किसी बैशाखी की जरुरत नही है। बस आवश्यकता है आत्मसात करने की। अन्यथा ये रोना हर वर्ष जारी रहेगा और होगा कुछ नही।
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